tag:blogger.com,1999:blog-54718785640133312772024-03-06T09:18:43.047+05:30॥जीवन विचार॥Soul of InspirationShanti Garghttp://www.blogger.com/profile/03904536727101665742noreply@blogger.comBlogger9125tag:blogger.com,1999:blog-5471878564013331277.post-8271741212165241812017-03-05T23:22:00.002+05:302017-03-05T23:28:58.138+05:30संसार को सही दृष्टि से देखना चाहिए।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaBFvm74EmcU490m6IxagLNqfJUsEWh3WLzPXqyvqG4pEpYi-ZEvrzvy3ObxBdysAMbnYr3fnfotlRM8_UavBnogJQEcU6okbAtSMdlMV5t5Leyvdd9GHEUhaAFJlt7q_vMYseDiZ0tR8/s1600/QjMB4ABygWVvAQaxdOrbCcn3MY-ogGpAJ_g5W3-3ZFusNfa-FMlxzYOCYku2aBduSw%253Dw300.png" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" height="200" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgaBFvm74EmcU490m6IxagLNqfJUsEWh3WLzPXqyvqG4pEpYi-ZEvrzvy3ObxBdysAMbnYr3fnfotlRM8_UavBnogJQEcU6okbAtSMdlMV5t5Leyvdd9GHEUhaAFJlt7q_vMYseDiZ0tR8/s200/QjMB4ABygWVvAQaxdOrbCcn3MY-ogGpAJ_g5W3-3ZFusNfa-FMlxzYOCYku2aBduSw%253Dw300.png" width="200" /></a></div>
<br />
<br />
<span style="color: red;"><b>कुछ </b></span>व्यक्तियोँ को अपने अतिरिक्त अन्य सभी से कुछ न कुछ शिकायत रहा करती है,
उन्हेँ इस दुनियाँ मेँ ढंग का कोई आदमी ही नजर नहीँ आता, मुश्किल से उंगलियोँ
पर गिने जा सकने जितने व्यक्तियोँ से
उन्हेँ कोई शिकायत नहीँ होती, वे ही उन्हेँ पसंद आते हैँ और अच्छे लगते हैँ।
उनकी नजर मेँ कोई मूर्ख, कोई पागल, कोई फूहड़, कोई अनैतिक और मक्कार तो कोई और
कुछ होता है, पर भला नहीँ। ऐसे व्यक्तियोँ के लिए यह संसार एक प्रकार से
जेलखाना और अपना जीवन एक बंदी का सा होता है।
हर व्यक्ति को अपनी ही मान्यताओँ अपने ही आदर्शोँ, अपने ही विचारोँ और अपनी ही
व्यक्तिगत पसंदगी से नापना कोई बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य नहीँ हो सकता<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<br />
<br />
<br />
.<br />
<br /></div>
Shanti Garghttp://www.blogger.com/profile/03904536727101665742noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-5471878564013331277.post-75780259751268071092016-03-09T17:39:00.000+05:302016-03-09T18:20:15.129+05:30सुख-दुःख का अधिष्ठाता 'मन'<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<a href="https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQPHTBFouE5NSkUiY3mzlEQxBFYhvQXoiHb3vX8G14MeywWQJCUdw" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img alt="Image result for soul" border="0" class="rg_i" data-src="https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQPHTBFouE5NSkUiY3mzlEQxBFYhvQXoiHb3vX8G14MeywWQJCUdw" data-sz="f" name="U-EvRFOpqTyHMM:" src="https://encrypted-tbn3.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQPHTBFouE5NSkUiY3mzlEQxBFYhvQXoiHb3vX8G14MeywWQJCUdw" style="height: 181px; margin-top: 0px; width: 151px;" /></a><br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<b> <span style="color: magenta;">मोहग्रस्त</span> </b>मनुष्य अज्ञान के कारण मानव-जीवन का ठीक-ठीक महत्व नहीँ समझ
पा रहा है। चूँकि उसे मनुष्य शरीर मिल गया है इसलिए वह समझने लगा है कि यह
तो योँ ही बिना विशेष विधान के मिलता ही रहता है। प्रतिदिन जीवोँ को इस
शरीर मेँ आते देखकर उसने इसे बड़ी ही सस्ती और सामान्य प्रक्रिया मान लिया
है। मानव-जीवन के प्रति इसी सस्तेपन के भाव के कारण वह इसकी उतनी कद्र नहीँ
करता जितनी करनी चाहिए। तभी तो आज संसार मेँ अधिकांश मनुष्य अशांत,
असंतुष्ट और दुःखी दिखाई देते हैं।<br />
<br />
किसी वस्तु का मूल्य
एवं महत्व <br />
<a name='more'></a>तब समझ मेँ आता है जब वह हाथ से निकल जाती है। धन की स्थिति मेँ
धनवान को उसके महत्व का ध्यान नहीँ आता। वह उसे अपने लिए बड़ी ही साधारण और
सामान्य वस्तु समझता है और बिना किसी विचार के उसका उपयोग-दुरूपयोग करता
है। किँतु जब वह उससे हाथ धो बैठता है, तब उसके महत्व को बार-बार याद करके
रोता, कलपता और पछताता है। किसी व्यक्ति को स्वास्थय के महत्व का भान तब तक
नहीँ होता जब तक वह उसे खो नहीँ देता। यह कोई बुद्धिमानी की बात नहीँ है
कि मनुष्य किसी वस्तु का महत्व तब तक समझना ही न चाहे जब तक वह उसे सुलभ
है। किसी वस्तु को खोकर उसके महत्व को समझने वाले अज्ञानियोँ के अधिकार मेँ
पश्चाताप के सिवाय और कुछ नहीँ रह जाता।<br />
<!--more--><br />
<br />
मानव शरीर एक
अमूल्य उपलब्धि है। परम पिता परमात्मा का बहुत बड़ा अनुग्रह है। मनुष्य को
अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी होना चाहिए। जीवन के प्रति
अनुत्तरदायित्वपूर्ण दृष्टिकोण के कारण मनुष्य को अनेक प्रकार की दुःखदायी
समस्याओँ मेँ उलझा रहना पड़ता है।<br />
<br />
भाग्य, दैव, ग्रह,
नक्षत्र, समाज आदि पर अपनी दयनीय दशा का दोषारोपण करना न्याय-संगत नहीँ है।
जो ऐसा करते हैँ वे वास्तव मेँ स्वयं को ही धोखा देते हैँ। प्रथम तो
भाग्यवाद कायरोँ और अकर्मण्योँ का दर्शन है। पुरूषार्थी व परिश्रमी पुरुष
इसमेँ विश्वास करने को अपना अपमान समझते हैँ। तथापि, यदि इसके अस्तित्व को
मान भी लिया जाए तो भी इसका निर्माता स्वयं मनुष्य ही है। इसी प्रकार अपनी
दुःखपूर्ण स्थिति का दोष दैव को भी देना उचित नहीँ है।<br />
<br />
अपनी
प्रतिकूल परिस्थितियोँ का दोष समाज के नाम डालना भी ठीक नहीँ। समाज न तो
किसी का विरोध करता है और न अवरोध। यदि कुछ करता है तो सहयोग करता है। अब
यदि समाज का सहयोग प्राप्त कर सकने की क्षमता नहीँ है तो मनुष्य स्वयं ही
उसका दोषी है न कि समाज। <br />
<br />
अतएव आनंद की उपलब्धि मनुष्य के
अपने हाथोँ मेँ है। वह अपने रचनात्मक चिँतन द्धारा अपने संकल्पोँ को कार्य
रूप मेँ परिणत करने का प्रयास करे, तो संसार की हर वस्तु व कार्य मेँ उसे
सुख ही सुख मिलता रहेगा। <br />
<br />
इस प्रकार हम अपनी विचार शैली
मेँ थोड़ा सा परिवर्तन कर लेँ तो अनुभव करेँगे कि जहाँ नीरसता, उदासी,
असफलता, निष्क्रियता, आलस्य, प्रमाद, असावधानी अस्त-व्यस्तता आदि से जीवन
एक भार के समान लग रहा था वहीँ हमेँ संसार मेँ सर्वत्र एक नई ज्योति का
प्रकाश तथा आनंद का समुद्र लहराता दिखाई देगा। हर परिस्थिति मेँ चाहे वह
अनूकूल हो या प्रतिकूल उसमेँ भी हमेँ आनंद आएगा।<br />
<b><span style="color: #6aa84f;">Jeevanvichaar </span></b></div>
Shanti Garghttp://www.blogger.com/profile/03904536727101665742noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-5471878564013331277.post-24166104846025655122016-02-21T20:28:00.000+05:302016-02-21T20:29:24.375+05:30आत्मानुभूति का भाव बनाता है श्रेष्ठ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
सदियोँ पुरानी सभ्यता का युवा रिषि हमेँ आत्म स्वरूप की अनुभूति का ही संदेश देता है। सच्चे व आध्यात्मिक व्यक्ति को सर्वत्र उदार माना जाता है। आज के समय मेँ हमेँ उदारमना मनुष्योँ की ही आवश्यकता है। उदारता से वैमनस्य
<a name='more'></a>
का शमन होता है। आत्मानुभूति हमेँ किसी भी क्षण शक्तिहीन नहीँ रहने देती। आत्मानुभूति का अनुशासन मनुष्य को श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर बनाता है। दीनता कायरता है। मनोवेगोँ की गुलामी से ही शक्ति का अपव्यय होता है। अथक और अनवरत परिश्रम ने ही सभ्यता के सुंदरतम सपनोँ को सच कर दिखाया है। इस सबंध मेँ विवेकानन्द का पत्र साहित्य हमारी राष्ट्रीय संस्कृति की अनुपम निधि है जो नई पीढ़ी को धर्म, दर्शन, संस्कृति, शिक्षा, समाज और राष्ट्र निर्माण स्फूर्तिदाई संदेश देते हैँ। निडरता व साहसिक कार्योँ की ओर उन्मुख करते हैँ। स्वामी विवेकानन्द कहते थे कि आत्मसंघर्ष से साधारण परिस्थितियोँ मेँ असाधारण परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैँ। मानव सभ्यता और भारतवर्ष का भविष्य युवाशक्ति और उसके विवेक सम्मत व्यवहार व सम्यक लक्ष्य पर निर्भर है।</div>
Shanti Garghttp://www.blogger.com/profile/03904536727101665742noreply@blogger.com16tag:blogger.com,1999:blog-5471878564013331277.post-53091088935791391192015-08-19T18:32:00.000+05:302015-08-19T18:37:58.272+05:30नैतिकता पर हावी भौतिकता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<h4 style="text-align: left;">
<span style="color: #351c75;"><b>वर्तमान</b> </span></h4>
मेँ भौतिकता का स्तर नैतिकता से कहीँ अधिक ऊँचा है, इतना अधिक कि नैतिकता बहुत पीछे छूट चुकी है। भौतिकता मनुष्य का जीवन विलासितापूर्ण बना देती है,यदि यह कहेँ तो कोई अतिशयोक्ति न होगी कि भौतिकता एक
<br />
<a name='more'></a>ऐसा फल है जिसका स्वाद हर मनुष्य चखना चाहता है फिर भी वह थोड़ा ही स्वाद ले पाता है।
इसी अधूरे स्वाद को पूरा करने की सोच से अनैतिकता का जन्म होता है और मनुष्य अपनी भौतिकता की पूर्ति हेतू धन अर्जित करने के लिए अनैतिक और गलत साधनोँ का इस्तेमाल करता है।
युवा वर्ग भौतिकता के प्रति ज्यादा अधिक और जल्दी आकर्षित होता है और यह आकर्षण समाज मेँ अपराधीकरण को बढ़ावा देता है।
इसका एकमात्र सरल उपाय संतोष है क्योकि इसका स्वाद चखने वाला भौतिकता से दूर रहता है।
</div>
Shanti Garghttp://www.blogger.com/profile/03904536727101665742noreply@blogger.com27tag:blogger.com,1999:blog-5471878564013331277.post-35865821094032201922015-05-18T17:57:00.000+05:302015-08-19T18:25:51.460+05:30मनुष्य के मूल्याकंन का मापदंड बदलेँ<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<img alt="Image result for goutam budh" class="rg_i" data-src="https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQ0OgE8GHTiD4VnfmfW3Sv7wW1YPb3lOT6jeDIOV51bZAOlFX_Q" data-sz="f" name="KOuSvaqvRj9XxM:" src="https://encrypted-tbn2.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQ0OgE8GHTiD4VnfmfW3Sv7wW1YPb3lOT6jeDIOV51bZAOlFX_Q" style="height: 188px; margin-left: -19px; margin-right: -5px; margin-top: 0px; width: 136px;" /><br />
<br />
<h3 style="text-align: left;">
<span style="color: #cc0000;"><b>मनुष्य </b></span></h3>
महत्त्वाकांक्षाओँ का पुतला है और इन महत्त्वाकांक्षाओँ के कारण
ही उसकी दृष्टि मेँ सफलता एक मूल्यवान उपलब्धि है। प्रत्येक मनुष्य सफल
होना चाहता है, परंतु सफलता की
सर्वमान्य परिभाषा
<br />
नियत नहीँ की जा सकती है
और इसी कारण अलग-अलग व्यक्तियोँ के लिए सफलता अलग-अलग अर्थ रखती है। कोई
व्यक्ति यश और सम्मान को सफलता का आधार मानता है तो कोई धन और पद को। किसी
की दृष्टि मेँ विद्या बुद्धि मनुष्य के मूल्याँकन की कसौटी है तो किसी के
लिए मनुष्य का पद और प्रतिष्ठा।उन सभी अर्थोँ के आधार पर किसी
निष्कर्ष पर तो पहुँचा ही जा सकता है और यह भी हो सकता है कि वे भिन्नताएँ
भी तत्त्वतः अपने मेँ एकरुपता रखती होँ। सफलता
<br />
<a name='more'></a>धन संपत्ति, यश,
प्रतिष्ठा और विद्या बुद्धि के अनेक अर्थ रखती है। इनका समुच्चय रूप ही
सफलता है। अंतर इतना सा है कि कोई किसी अंग को प्रधानता देता है और कोई
किसी अंग को। विद्या - बुद्धि को प्रयोग किए बिना कौन संपत्तिवान बना है?
और संपत्तिशाली होने के साथ व्यक्ति की प्रतिष्ठा बढ़ जाना भी जुड़ा हुआ है।
यही बात यश, प्रतिष्ठा और विद्या विभूति के साथ भी जुड़ी है। प्रतिष्ठित
व्यक्ति के पास साधारण लोगोँ की अपेक्षा अधिक संपत्ति और बुद्धि नहीँ होती
परंतु विद्यावान व्यक्ति यश और धन के लिए कभी नहीँ तरसेगा।इन सब
विशेषताओँ के साथ एक बात अनिवार्य रूप से जुड़ी है कि महत्त्वाकांक्षा पूरी
करने के लिए क्रियाशीलता आवश्यक है। मनुष्य जन्म से असहाय और अकिचंन पैदा
होता है तथा जन्म के साथ ही वह स्थिति, क्षमता और शक्ति मेँ पूर्वापेक्षा
कुछ वृद्धि करने के लिए सचेष्ट होने लगता है।मानवीय गुणोँ से रहित
लौकिक सफलताएँ और कीर्ति मनुष्य को प्रतिष्ठा तो नहीँ देती, फिर भी आमतौर
पर लोगोँ की दृष्टि बाहरी सफलताओँ पर ही अधिक टिकती है। जिन्हेँ धनवान,
प्रतिष्ठित और पहुँच वाला आदमी मान लिया जाता है लोग उसी के पीछे
भागने-दौड़ने लगते है, उससे लाभ उठाने के लिए प्रयत्नशील रहते हैँ। ये सभी
उपलब्धियाँ मनुष्य की महत्वाकांक्षाओँ और उसके लिए किए जाने वाले प्रयासोँ
से ही प्रसूत है।तथाकथित सफलताओँ का एक दूसरा पक्ष भी होता है कि
व्यक्ति अपने मानवीय गुणोँ और सामाजिक आदर्शोँ के प्रति कितना निष्ठावान
है। सफल तो झूँठ, बेईमानी, दगाबाजी और अनीतिपूर्वक कमाने वाले लोग भी हो
सकते हैँ, क्योकि इस प्रकार उनके पास धन तो इकट्टा हो ही जाता है।
चरित्रहीन लोग भी सामान्य स्तर के लोगोँ से अधिक बुद्धिमान हो सकते हैँ।
प्रतिष्ठा, डाकू,चोर, लुटेरोँ और अपराधियोँ को भी मिल जाती है? तो क्या इन
सफलताओँ के आधार पर मनुष्य को सफल माना जाना चाहिए? उत्तर स्पष्ट
रूप से नहीँ मेँ ही मिलेगा। वस्तुतः बाहरी सफलताओँ की अपेक्षा नैतिकता और
दृष्टिकोण की उत्कृष्टता के आधार पर ही मनुष्य का मूल्याँकन किया जाना
चाहिए। बाहरी सफलताओँ की अपेक्षा यह अधिक पुरूषार्थ साध्य है, क्योकि कमजोर
संकल्प के व्यक्ति शीघ्र ही अपने प्रयत्नोँ की निष्फलता से निराश हो जाते
हैँ और उन प्रयत्नोँ को छोड़ बैठते हैँ। प्रगति के पथ पर चलने वालोँ को
संघर्षोँ तथा कठिनाईयोँ का सामना करने के लिए आत्मबल ही एकमात्र उपाय रह
जाता है और अनैतिक, बेईमान तथा भ्रष्ट मार्ग अपनाने वाले व्यक्तियोँ का
मनोबल क्षीण तथा कमजोर ही रहता है। वे कष्ट - कठिनाइयोँ से टकराकर शीघ्र ही
पस्त हिम्मत हो जाते है।अन्य नैतिक आदर्शोँ को भी इसी आधार पर खरा
और खोटा पाया जा सकता है और जो इन आदर्शोँ की ओर चलने का साहस करेगा उसे
जीवन के श्रेष्ट मूल्योँ का बोध भी होगा। नीति - अनीति जैसे सभी तरीके
अपनाकर संम्पन्न बनने वाले व्यक्ति को गरीब और अभावग्रस्त, बेवकूफ और मूर्ख
कहेंगे, परंतु आदर्श निष्ट बनकर जिन्होने स्वेच्छेया निर्धनता का वरण कर
लिया उनका दृष्टिकोण कुछ और ही बन जाता है। जिसका आनंद संम्पन्न व्यक्ति
अपनी सारी संपत्ति देकर भी नहीँ उठा सकता। महत्त्वाकांक्षाओँ के
विकृत और परिष्कृत स्वरूप को यदि हम समझ सकेँ, उनका नीरक्षीर विवेक कर सकेँ
और अपने मूल्याँकन के मापदंड को बदलेँ तो नैतिकता और आदर्शवादिता को ही
सर्वाधिक वरेण्य पा सकेंगे, उसके लिए यश, प्रतिष्ठा और संपन्नता की
कसौटियाँ बदलनी पडेंगी तथा सद्विचारोँ, सत्प्रवृतियोँ और सत्कर्मो को उनके
स्थान पर प्रतिष्ठित करना होगा।
</div>
Shanti Garghttp://www.blogger.com/profile/03904536727101665742noreply@blogger.com31tag:blogger.com,1999:blog-5471878564013331277.post-19869693029691737752015-02-10T13:30:00.000+05:302015-02-10T13:43:41.726+05:30मनःस्थिति ठीक रखनी चाहिए।<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<b><span style="color: #cc0000;">जीवन</span> </b>में जब कभी हम दोराहे पर खड़े हों, परिस्थितियाँ प्रतिकूल हों, मुसीबतों का चक्रव्यूह भेदना भी कठिन ॐ हो,अपनों ने भी साथ छोड़ दिया हो, बुद्धि तो जैसे भ्रमित सी हो गयी हो तो क्याकरें ? कैसे ऐसे बुरे समय से बाहर निकलें ? कैसे फिर से जीवन सहज, सुखी, सफल, संतुष्ट और सरल बनायें ? उत्तर बड़ा ही संक्षिप्त है कि बस हम श्रद्धा और विश्वास को बिखरने न दें | श्रद्धा उस ज्ञान के प्रति कि जो मानव को अवगत कराता है इस सत्य से कि ऊषाकाल की पहली किरण से पहले का अँधेरा सबसे ज़्यादा घना हुआ करता है
<br />
<a name='more'></a>और विश्वास उस सहनशक्ति का कि जो यह संदेश देता है कि अब सवेरा होने में कुछ थोड़ी हीसी देर बाकी है | जीवन में वही व्यक्ति अपने लक्ष्य को सिद्ध कर पाता है,जो एक विश्वसनीय अनुभवी व्यक्ति के निर्देशन में , सही मार्ग पर चलकर ,उचित साधनों का सदुपयोग कर, उद्देश्य को प्रतिपल अपनी स्मृति में संजोये रखकर,सफलता और असफलता की चिंता से मुक्त रहकर सतत एवं निरंतर प्रयासशील रहता है|<br />
अब यदि वह सफल होता है तो उसका जीवन आनंद से भर जाता है लेकिन असफल होने पर भी उसके श्रद्धा और विश्वास टूटा नहीं करते क्योंकि उसके पास आश्रय होता है अपने कर्मों के प्रति ईमानदारी और सत्यता का; आभास होता है अपने दायित्व का जो उसे, उसकी रीढ़ बनकर सीधा खड़े रहने में मदद किया करते हैं|<br />
<br />
अपने ही प्रति उसकी आस्था फिर से उसे प्रयास करने की प्रेरणा देती है, विश्वास हरवक्त एक अक्षुण्ण ऊर्जा बन कर उसे अपनी योजनाओं ; उन्हें पूरा करने के साधनों और तरीकों के प्रति आत्मा की आवाज़ बनकर ; सावधान करता रहता है, ऊपर वाला भी किसी न किसी रूप में कोई अपना बनकर उसे सहारा देने लगता है ; परिस्थितियाँ भी कुछ हद तक अनुकूल होने लगती हैं कयोंकि अब वह जल्दी से परेशान नहीं हुआ करता और प्रगति के मार्ग स्वतः ही प्रशस्त होने लगते हैं |</div>
Shanti Garghttp://www.blogger.com/profile/03904536727101665742noreply@blogger.com18tag:blogger.com,1999:blog-5471878564013331277.post-28431562304221340642015-01-15T10:23:00.001+05:302015-01-27T11:34:31.656+05:30धैर्य का महत्व<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhcA03DAcVy9N6jDhSEGgJ9FiFovUD5uHbS3cAm5CbDeB_tCL2xly51D9pqduiaInJlH4sa0Z66SZ7vk20GoKGM2yCwq7qfYD4fbPlL5rfGIe1FyNKa1pWYs2fg7AoaEtn09BNOVniP0yc/s1600/l_ccb08cf9286948a9a192f624d403fc32-771956.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhcA03DAcVy9N6jDhSEGgJ9FiFovUD5uHbS3cAm5CbDeB_tCL2xly51D9pqduiaInJlH4sa0Z66SZ7vk20GoKGM2yCwq7qfYD4fbPlL5rfGIe1FyNKa1pWYs2fg7AoaEtn09BNOVniP0yc/s1600/l_ccb08cf9286948a9a192f624d403fc32-771956.jpg" height="150" width="200" /></a></div>
<br />
<h3 style="text-align: left;">
<span style="font-family: Arial,Helvetica,sans-serif;"><span style="background-color: #38761d;"><span style="color: #f3f3f3;"><b>जीवन</b> </span></span> </span></h3>
मेँ धैर्य और सफलता का गहरा रिश्ता है क्योकि धैर्य बनाकर रखने वाले लोग अपने कामोँ के इच्छित नतीजे न आने पर भी हिम्मत बनाए रखते है और जीत के लिए लगातार प्रयास करते रहते है।<br />
यह धैर्य हमेँ मानसिक रूप से मजबूत बनाता है जिससे मनुष्य विपरीत परिस्थितियोँ से भी अपने प्रयासोँ द्धारा बाहर निकल आता है। इसका कारण है कि धैर्यवान मनुष्य अपनी जीत के साथ-साथ अपनी हार को भी बर्दाश्त करने की क्षमता रखता है अन्यथा धैर्यहीन के अवसादग्रस्त होने का खतरा रहता है।</div>
Shanti Garghttp://www.blogger.com/profile/03904536727101665742noreply@blogger.com11tag:blogger.com,1999:blog-5471878564013331277.post-72585887662694478312015-01-02T10:21:00.003+05:302015-01-03T10:52:48.687+05:30उपदेश का सही प्रभाव<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
</div>
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxcLSIY88qFDuoD-kS8304dK5r1AJKO5Dr7ueT_pT6d1wZlcRvoNqG-euPmJrN7TuOIiF4iBUg6y0Xz5qWHmD4wYns7ozMTKMBYvJAuH_pKtMNohjptVFEyGQ8lF1Z1-FdCSQzCCOvyMo/s1600/sks_ujn_128_3101-751754.jpg" imageanchor="1" style="margin-left: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjxcLSIY88qFDuoD-kS8304dK5r1AJKO5Dr7ueT_pT6d1wZlcRvoNqG-euPmJrN7TuOIiF4iBUg6y0Xz5qWHmD4wYns7ozMTKMBYvJAuH_pKtMNohjptVFEyGQ8lF1Z1-FdCSQzCCOvyMo/s1600/sks_ujn_128_3101-751754.jpg" height="200" width="145" /></a></div>
<div style="text-align: left;">
<b><span style="color: #f1c232;"><span style="background-color: white;"><span style="color: #741b47;"><span style="font-family: Times,"Times New Roman",serif;">उपदेशदाता</span></span> </span></span></b>का कार्य उपदेश देना है लेकिन जिस व्यक्ति मेँ सत्यनिष्ठा नहीँ है और उसे उपदेश दिया जाए, उसे समझाने का प्रयत्न करेँ कि व्यवहार प्रामाणिक होना चाहिए, अप्रामाणिक व्यवहारअच्छा नहीँ है तो वह सुन लेगा। कहने वाला
</div>
<a name='more'></a>कहेगा,सुनने वाला सुन लेगा, पर होगा वही, जो चल रहा है। कुछ मनुष्योँ की सबसे बड़ी समस्या है कि वह किसी भी तथ्य की आधारभूमि को नहीँ पकड़ता अपितु जो दिखाई देता है, सामने आता है, उसे पकड़ने का प्रयत्न करता है। इसे इस तथ्य द्धारा भी समझा जा सकता है कि एक शक्तिशाली और एक कमजोर पड़ोसी के बीच अनबन हो जाने पर कमजोर यह सोचकर बदला नहीँ लेता कि सामने वाला शक्तिशाली है। इस कारण वह उससे बदला लेने के लिए उसके परिवार वालोँ या उससे जुड़े अन्य लोगोँ को कष्ट पहुँचाता है। अब यहाँ सार रूप मे यह सत्य उजागर होता है कि यदि कमजोर पड़ोसी ने गुरु द्वारा दी गई शिक्षाओँ का सकारात्मक अर्थ लगाया होता तो वह इस प्रकार का कार्य न करता क्योकि शिक्षा देने वाले दोनोँ के गुरु तो एक ही थे।</div>
Shanti Garghttp://www.blogger.com/profile/03904536727101665742noreply@blogger.com10tag:blogger.com,1999:blog-5471878564013331277.post-19560785571076947882014-11-08T13:56:00.000+05:302014-11-08T15:31:22.768+05:30 छलावा क्या है?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<div class="mobile-photo">
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiO9Q0T1YuE5D6vxOUPYKbpIt7KV9ITb7rHWnjPcIJUvuoyofwUR2A7PUVmGX2aEIXiFo3rAZ7DA8r2ZJfoUvgyNWVProCPVJlga7eCDhyykUf3EwFK2VHYHTeBJabFB6FooiTxfDpO4aI/s1600/%253D%253FUTF-8%253FB%253F4KSG4KSk4KWN4KSu4KS%252BLmpwZw%253D%253D%253F%253D-793795"><img alt="" border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiO9Q0T1YuE5D6vxOUPYKbpIt7KV9ITb7rHWnjPcIJUvuoyofwUR2A7PUVmGX2aEIXiFo3rAZ7DA8r2ZJfoUvgyNWVProCPVJlga7eCDhyykUf3EwFK2VHYHTeBJabFB6FooiTxfDpO4aI/s320/%253D%253FUTF-8%253FB%253F4KSG4KSk4KWN4KSu4KS%252BLmpwZw%253D%253D%253F%253D-793795" id="BLOGGER_PHOTO_ID_5715658701897726930" /></a></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="background-color: white; color: red; font-size: large;"><b style="color: #cc0000;">इस</b></span><i><span style="color: red;"> </span></i>संसार
मेँ मनुष्य चौबीसोँ घंटे शरीर की सेवा-सुश्रूषा मे लगा रहता है। शरीर की
एक भी इच्छा अपूर्ण नहीँ रहने देता, हर मांग की पूर्ति करता है। मगर जो
इसका मालिक है, कर्ता-धर्ता है, जिसके कारण </div>
<a name='more'></a><br />
इसकी कीमत है, उस आत्मा का गुणगान कभी नहीँ करता। उस आत्मा को कभी धन्यवाद नहीँ देता है।<br />
उपर्युक्त
बात को इस छोटे-से उदाहरण द्वारा भी समझा जा सकता है कि एक महिला ने सुनार
से एक नथनी बनवाई जिसे उसने बड़ी मेहनत से बनाया। नथनी बहुत ही अद्भुत थी।
वह महिला नथनी को पाकर नाच उठी, कारण कि उसकी मनोकामना पूर्ण हो गई थी। अब
वह महिला हमेशा उस सुनार के गुणगान करने लगी। किन्तु उसने एक बार भी उस
ईश्वर का गुणगान नही किया, जिसने उसे नाक दी है।<br />
<br />
ऐसी दशा
लगभग सभी की देखी जाती है। हमेँ यह याद रखना चाहिए कि शरीर मकान है और
आत्मा मकान का मालिक है। मालिक के बिना मकान खण्डहर कहलाता है और आत्मा के
अभाव मेँ शरीर मुर्दा कहा जाता है। मनुष्य को मृण्मय को नहीँ, चिन्मय को
पूजना चाहिए क्योकि जो चिन्मय अर्थात् शाश्वत है केवल वही हमारा है, उसी
पर हमारा अधिकार है। शेष सब छलावा है।</div>
Shanti Garghttp://www.blogger.com/profile/03904536727101665742noreply@blogger.com23